खाद्य सुरक्षा का चक्र


 


 


विश्व खाद्य सम्मेलन-1995 में संकल्प लिया गया था कि 2015 तक विश्व के आधे भूखों को भूख की मार से मुक्ति दिला दी जाएगी। इसके बाद 2000 में भी सारे देशों के बीच सहमति बनी थी कि दुनिया में हर किसी को पर्याप्त भोजन और पोषण उपलब्ध होगा। इससे गरीब भी अभावों के दंश से मुक्त होकर उच्च गुणवत्ता वाला जीवन जी सकेंगे। इसी दिशा में सहस्राब्दि विकास लक्ष्य और संशोधित टिकाऊ विकास लक्ष्य में भी 2030 तक शन्य भुखमरी, खाद्य सुरक्षा तथा पोषण के लक्ष्यों तक पहुंच की बात की गई। हालांकि हकीकत यह है कि आज भी वैश्विक स्तर पर पर्याप्त खाद्य सामग्री उपलब्ध होने के बावजूद करीब 8210 लाख लोग हर रात भूखे सोने को मजबूर होते हैं। ऐसी स्थितियां गरीब देशों में ही नहीं, अमेरिका जैसे अमीर देशों में भी हैं। आज ऐसे अरबों लोग विश्व में हैं, जिनकी दैनिक आय सौ रुपए से भी कम है। भारत में ही करीब पैंतीस से चालीस करोड़ लोगों को खाना जुटाने का संकट रहता है। खाद्य सुरक्षा पर सक्रिय रही पिछली यूपीए सरकार का तब अनुमान था कि देश में खाद्य असुरक्षा के संकट में फंसे लोगों की संख्या सत्तर करोड़ से ज्यादा है। गरीबी के साथ ही खाद्य असुरक्षा और कुपोषण के संकट में पड़े लोगों की संख्या प्राकृतिक या मानवजनित आपदाओं के साथ वृहद स्तर पर आर्थिक मंदी आने के साथ और बढ़ जाती है। 2009 की आर्थिक मंदी में ही वैश्विक स्तर पर लगभग दस करोड़ नए लोग भूखों की तादाद में जुड़े थे। आपदाओं में स्वास्थ्य आपदाएं गरीबों और कुपोषितों के लिए काफी मारक होती हैं। ये स्थानीय महामारी या वैश्विक महामारी जनित होती हैं। यों तो हर प्रकार की आपदा में कुपोषित लोगों की सदा संक्रमण की चपेट में आने की ज्यादा संभावनाएं होती हैं, पर अन्य प्रकार की आपदाओं से भी ज्यादा महामारी जनित आपदाओं में यह सतर्कता आवश्यक हो जाती है कि कुपोषण या भुखमरी की पुरानी समस्याओं के साथ-साथ कुपोषण और भुखमरी के नए मामले न बढ़ जाएं। आशंका इसलिए भी रहती है कि आपदाओं के दौरान काम न कर सकने या काम न मिल सकने के कारण पारिवारिक और व्यक्तिगत गरीबी में भी वृद्धि हो जाती है। इसी परिप्रेक्ष्य में कोविड-19 जैसी वैश्विक महामारी पर भी विचार करना सामयिक होगा। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुतारेस का कहना है कि संयुक्त राष्ट्र के पचहत्तर साल के इतिहास में पहले ऐसा कोई वैश्विक स्वास्थ्य संकट नहीं आया, जिसने इस स्तर तक मानव जीवन की मुश्किलें और वैश्विक आर्थिकी को चोट पहुंचाया हो। उन्होंने कहा कि हमें उन लोगों पर ध्यान केंद्रित करना है, जो खासकर बहुत कम मजदूरी पाते और अनौपचारिक आर्थिकी के क्षेत्र में काम करते हैं। चूंकि इस विषाणु को हराने, सीमित करने या तीसरे चरण तक पहुंचने से रोकने के लिए प्रभावित श्रृंखला को तोड़ना, सामाजिक दूरी बनाए रखना या स्वयं को घरों में कैद कर देना एक प्रभावी उपाय के तौर पर अपनाया जा रहा है, इसलिए भी खासकर अनौपचारिक व्यवसायों में काम करने वालों और दिहाड़ी मजदूरों की व्यक्तिगत तथा पारिवारिक आय पर भारी असर पड़ा है। लगभग पूरे विश्व में बंदी के कारण भुखमरी और गरीबी में जीने वालों की संख्या में बढ़ोतरी की आशंका बढ़ गई है। दुनिया भर में करीब ढाई करोड़ नौकरियां कोरोना से खत्म हो गई हैं। यह संख्या अभी और बढ़ सकती है। भारत में ही करीब पचास प्रतिशत कंपनियां महामारी जनित वातावरण से प्रभावित हुई हैं। करोड़ों लोगों की नौकरियां प्रभावित हुई हैं। करीब अस्सी प्रतिशत कंपनियों में नगदी प्रवाह में कमी आई है। इससे औपचारिक क्षेत्र में भी काम करने वालों के पास पैसे की कमी हो गई है। संयुक्त राष्ट्र की एक संस्था के अनुसार साल के अंत तक करीब करीब 3.4 खरब डॉलर की श्रमिक आय खत्म हो सकती है। और ज्यादा लोग न बेकार हो जाएं, इसलिए धनी देश भी अपने-अपने यहां की कंपनियों से अनुरोध कर रहे हैं कि वे अपने कामगारों को नौकरियों से न निकालें। वे उनके करों, कर्जी आदि में रियायत देने के साथ-साथ उनसे यह भी कह रही हैं कि उनके कामगारों को दिए जाने वाले वेतन का एक बड़ा हिस्सा सरकार देने को तैयार है। समाचारों के अनुसार स्वीडन ने 90, डेनमार्क ने 75, इग्लैंड ने 89 प्रतिशत तक वेतन भार वहन करने की कंपनियों से पेशकश की है। भारत सरकर ने भी कंपनियों को निर्देश दिया है कि वे अपने कर्मचारियों को न हटाएं और न उनका वेतन काटें। विभिन्न राज्य लाखों दिहाड़ी श्रमिकों को सस्ता राशन देने और सीधे खाते में पैसा पहुंचाने की घोषणा कर चुके हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने कहा है कि राज्य के पंजीकृत पंद्रह लाख दिहाड़ी मजदूरों और बीस लाख सैंतीस हजार निर्माण श्रमिकों को उनकी दैनिक जरूरतों के लिए एक हजार रुपए प्रति माह देंगे। राज्यों द्वारा घोषित ऐसी सहायताओं से श्रमिकों का गुजारा नहीं होता है। इसलिए लोग अपने मूल निवास स्थानों को लौटने को बेचैन रहते हैं, भगदड़ भी मचाते हैं। इनसे गांव तक संक्रमण पहुंचने का खतरा हो सकता है। जैसा इस समय हो रहा है, जब दुकानों, परिवहन आदि के बंद होने का सचजगह-जगह दिखने लगता है, तो सबसे बड़ी चिंता पारिवारिक स्तर पर यह हो जाती है कि घर में खाने-पीने का इतना सामान रख लिया जाए कि अगर बाजार बंद मिले या दुकानों में सामान न मिले तो भी घर में खाने के लिए कुछ तो हो। ऐसी हालत कितनी लंबी चलेगी, इस पर भी संशय रहता है। ऐसे में कुछ संपन्न लोग हड़बड़ी में खरीदारी करने की होड़ में लग जाते हैं, तो पहले से ही हाशिए पर पड़े समूह रोजगार न होने या छिनने के कारण आवश्यक भोजन भी जुटाने में असमर्थ होने लगते हैं। सामान की किल्लत के डर से जब भीड़ उमड़ती है, तो सोशल डिस्टेसिंग की सलाह भी अनसुनी कर दी जाती है। भीड़भाड़ से खुद को संक्रमित होने से बचाने के लिए जब कुछ दुकानदार खुद ही दुकान बंद करने लगते हैं, तब सामान नहीं मिलेगा, दुकानें बंद हो जाएंगी जैसी अफवाहों को और हवा मिलने लगती है। अब तो देश में पूर्णबंदी है। कई बार सीमाएं भी परिवहन के लिए सील कर दी जाती हैं। परिवहन और मानव संसाधन की कमी के चलते आपूर्ति श्रृंखला प्रभावित होती है। ऐसे में दिक्कतें आने लगती हैं। ऐसे समय कई दुकानदार नकली और मिलावटी सामान बेचने से भी बाज नहीं आते । यह दूसरी बीमारियों की संभावनाएं बढ़ा देता है। खाद्य सुरक्षा के संदर्भ में आपूर्ति का मतलब भरासेमंद, अबाध आपूर्ति होता है। बनी हुई आपूर्ति के बावजूद खाद्यान्न तक पहुंच की व्यवस्था करना भी अपरिहार्य होता है। पहुंच का संदर्भ आर्थिक और सामाजिक भी होता है। अन्यथा खाद्यान्न उत्पादन ग्रामीण क्षेत्रों में होने पर भी गांवों में खाद्य असुरक्षा और कुपोषण की समस्या क्यों होती या परिवारों में महिलाओं द्वारा भोजन बनाने पर भी खाद्य असुरक्षा और कुपोषण की समस्या उनके साथ अपेक्षाकृत ज्यादा क्यों बनी रहती। वैसे भी हर आपदा प्रबंधन की रणनीति में चेतावनी के साथ आपदा झेलने के लिए की गई तैयारियों का भी महत्त्व होता है। यह भी निर्विवाद है कि आपदाएं कोई भी हों, अशक्त, कुपोषित लोग जल्दी और ज्यादा प्रभावित होते हैं। इसलिए कोरोना जैसी दुर्भाग्यपूर्ण आकस्मिक आपदाओं की तैयारियों के क्रम में कुपोषण और भुखमरी से लड़ाई निरंतर सामान्य स्थितियों में भी जारी रहनी चाहिए। यह विश्व खाद्य संगठन की प्राथमिकता में भी है।